Monday, 28 December 2015
Thursday, 24 December 2015
Thursday, 17 December 2015
मध्यप्रदेश जनसन्देश - सतना, रीवा एवं जबलपुर, दिनांक 17 दिसम्बर 2015
आज मध्यप्रदेश जनसन्देश में ( ये दूसरी हैट्रीक है ) मूल लेख ये है ----‘हिट एंड रन’ का हिट हो जाना
देवेन्द्रसिंह सिसौदिया
ऐसा नहीं कि ‘हिट एंड रन’ देश का पहला प्रकरण है । इसके पूर्व भी कईं प्रकरण हुए किंतु इस प्रकरण ने जो देश के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया वो तारीफे काबिल है । कईं गुरुओं की आशाए जाग उठी है । वो भी अच्छे दिन के ख्वाब देखने लगे है । सल्लू के समक्ष उनके गुरुत्व ने भी घुटने टेक दिए । उन्हें अपना गुरु मान लिया ।
तेरह बरस चले इस प्रकरण ने कईं लोगों की परीक्षाएँ ले डाली । ड्राईवर से लेकर ऊँचे होदे तक के अधिकारियों ने ये सिद्ध कर दिया कि लॉयेल्टी क्या होती है ? अब यह कोई नहीं कह सकता कि केवल कुत्ते ही वफादार होते हैं । फिर चाहे अपनी वफादारी का प्रदर्शन करने के लिए इंसान को ही कुता क्यों नहीं कहना पड़े ।
बचपन में हमने कछुए की कहानी सुनी थी । दादी ने भी यहीं सिखाया कि कछुआ धीरे धीरे चल कर कैसे दौड़ जीत जाता है । इस प्रकरण में भी यहीं हुआ तेरह बरस तक कछुए की चाल चलने के बाद अचानक फैसला बदल जाता है ।
अंग्रेजी कहावत ‘मनी मेक्स मेयर गो’ कभी समझ में नहीं आई थी । शुक्र, सल्लू का जो वर्षों पश्चात बड़ी आसानी से इस कहावत का गुढ़ रहस्य समझने में सहायता की। पैसों से क्या नहीं खरीदा जा सकता । यहाँ सब कुछ मिलता है बस खरीदने वाला होना चहिए । मुझे तो भरोसा है कि इस प्रकरण को विधि के पाठयक्रम में विशेष स्थान दिया जाएगा ।
इस प्रकरण में जब लोगों ने वकीलों की फीस के बारे में सुना तो अपने नौ-निहालों के कॉरियर के बारे में तय कर लिया होगा कि उन्हें वकील ही बनायेंगे । वो दिन दूर नहीं जब इंजीनियरिंग कॉलेजों के बोर्ड उतर जायेंगे और विधि महाविध्यालय के साईनबोर्ड जगमगायेंगे । केवल अभिनेता ही अभिनय नहीं कर सकता अपितु एक वकील भी अच्छे अभिनय और तर्क के आधार पर विद्वानों की राय बदल सकता है ।
देवेन्द्रसिंह सिसौदिया
ऐसा नहीं कि ‘हिट एंड रन’ देश का पहला प्रकरण है । इसके पूर्व भी कईं प्रकरण हुए किंतु इस प्रकरण ने जो देश के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया वो तारीफे काबिल है । कईं गुरुओं की आशाए जाग उठी है । वो भी अच्छे दिन के ख्वाब देखने लगे है । सल्लू के समक्ष उनके गुरुत्व ने भी घुटने टेक दिए । उन्हें अपना गुरु मान लिया ।
तेरह बरस चले इस प्रकरण ने कईं लोगों की परीक्षाएँ ले डाली । ड्राईवर से लेकर ऊँचे होदे तक के अधिकारियों ने ये सिद्ध कर दिया कि लॉयेल्टी क्या होती है ? अब यह कोई नहीं कह सकता कि केवल कुत्ते ही वफादार होते हैं । फिर चाहे अपनी वफादारी का प्रदर्शन करने के लिए इंसान को ही कुता क्यों नहीं कहना पड़े ।
बचपन में हमने कछुए की कहानी सुनी थी । दादी ने भी यहीं सिखाया कि कछुआ धीरे धीरे चल कर कैसे दौड़ जीत जाता है । इस प्रकरण में भी यहीं हुआ तेरह बरस तक कछुए की चाल चलने के बाद अचानक फैसला बदल जाता है ।
अंग्रेजी कहावत ‘मनी मेक्स मेयर गो’ कभी समझ में नहीं आई थी । शुक्र, सल्लू का जो वर्षों पश्चात बड़ी आसानी से इस कहावत का गुढ़ रहस्य समझने में सहायता की। पैसों से क्या नहीं खरीदा जा सकता । यहाँ सब कुछ मिलता है बस खरीदने वाला होना चहिए । मुझे तो भरोसा है कि इस प्रकरण को विधि के पाठयक्रम में विशेष स्थान दिया जाएगा ।
इस प्रकरण में जब लोगों ने वकीलों की फीस के बारे में सुना तो अपने नौ-निहालों के कॉरियर के बारे में तय कर लिया होगा कि उन्हें वकील ही बनायेंगे । वो दिन दूर नहीं जब इंजीनियरिंग कॉलेजों के बोर्ड उतर जायेंगे और विधि महाविध्यालय के साईनबोर्ड जगमगायेंगे । केवल अभिनेता ही अभिनय नहीं कर सकता अपितु एक वकील भी अच्छे अभिनय और तर्क के आधार पर विद्वानों की राय बदल सकता है ।
मीडिया भी इस सेलेब्रेटी बॉय को दिखाने में पीछे नहीं रहा । सुबह उठने से लेकर शाम को घर लौटने तक की रनींग कॉमेंट्री तो ऐसे दिखा रहे थे जैसे विश्व कप मैच का लाइव प्रसारण कर रहे हो । ह्त्या के प्रकरण का सामना करने जाते हुए अपराधी को इस प्रकार दिखाया जा रहा था जैसे वो कोई सत्य और असत्य का युद्ध लड़ने जा रहा हो, जब लौटा तो विजेता की तरह । कुछ भी हो सबने अपनी अपनी टीआरपी बड़ाने की कोई कसर नहीं छोड़ी । वाह, सल्लू मियाँ आपने सबका ख्याल रखा ।
फुटपाथ पर लैटे बेघरों से जब कोई उनकी अंतिम ईच्छा के बारे में पूछेगा तो अवश्य ही वह चाहेगा कि वो जब भी मरे किसी सैलेब्रेटी की गाड़ी के नीचे आकर । ताकि चाहे उसे इस दुनिया से मुक्ति के साथ परिवार को गरीबी से मुक्ति मिल जाये ।
वैसे हिट केवल गाड़ी से फुटपाथ पर ही नहीं किया जाता बल्कि लोगों की भावनाओं को भी किया जाता रहा है । वर्षों से गरीबों की भावनाओं को हिट कर उन्हें अच्छे दिनों के सपने दिखाये जाते रहे हैं । कुछ ही दिनों में इसी प्रकरण पर फिल्म बनेगी जो सो करोड़ के क्लब में अपना नाम दर्ज करवा कर हिट हो जाएगी ।
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फुटपाथ पर लैटे बेघरों से जब कोई उनकी अंतिम ईच्छा के बारे में पूछेगा तो अवश्य ही वह चाहेगा कि वो जब भी मरे किसी सैलेब्रेटी की गाड़ी के नीचे आकर । ताकि चाहे उसे इस दुनिया से मुक्ति के साथ परिवार को गरीबी से मुक्ति मिल जाये ।
वैसे हिट केवल गाड़ी से फुटपाथ पर ही नहीं किया जाता बल्कि लोगों की भावनाओं को भी किया जाता रहा है । वर्षों से गरीबों की भावनाओं को हिट कर उन्हें अच्छे दिनों के सपने दिखाये जाते रहे हैं । कुछ ही दिनों में इसी प्रकरण पर फिल्म बनेगी जो सो करोड़ के क्लब में अपना नाम दर्ज करवा कर हिट हो जाएगी ।
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Tuesday, 8 December 2015
Sunday, 29 November 2015
Wednesday, 25 November 2015
Sunday, 22 November 2015
नईदुनिया ब्ळॉग, इन्दौर - 30 अक्टूबर 2015
http://naidunia.jagran.com/editorial/naidunia-blog-we-have-to-participate-for-giving-new-life-to-others-540587
नईदुनिया ब्लॉग : दूसरों को नई जिंदगी देने में हम भी तो सहभागी बनें - देवेंद्र सिंह सिसौदिया - See more at: http://naidunia.jagran.com/editorial/naidunia-blog-we-have-to-participate-for-giving-new-life-to-others-540587#sthash.iychZ8zm.dpuf

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नईदुनिया ब्लॉग : दूसरों को नई जिंदगी देने में हम भी तो सहभागी बनें - देवेंद्र सिंह सिसौदिया - See more at: http://naidunia.jagran.com/editorial/naidunia-blog-we-have-to-participate-for-giving-new-life-to-others-540587#sthash.iychZ8zm.dpuf

गत रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 'मन की बात" कार्यक्रम में कुछ अन्य मुद्दों के अलावा अंगदान (ऑर्गन डोनेशन) पर भी बात करते हुए लोगों से इसे जागरूकता अभियान के रूप में लेने की अपील की। उनकी यह अपील दिल को छू गई। वाकई अंगदान की मुहिम को सतत सक्रिय रूप से आगे बढ़ाने की जरूरत है।
कुछ दिन पूर्व प्रदेश के इंदौर शहर से ग्रीन कॉरिडोर के माध्यम से एक लिवर दिल्ली के मेदांता अस्पताल में पहुंचा और एक जरूरतमंद को नई जिंदगी मिली। इस कार्य के लिए इंदौर की देशभर में चर्चा हुई। यह सही है कि अंगदान जैसे पुनीत कार्य में हम अभी तमिलनाडु सरीखे राज्यों से काफी पीछे हैं। इसके पीछे लोगों में जागरूकता की कमी के साथ-साथ अंधविश्वास जैसे कारण भी जिम्मेदार हैं।
अगर धार्मिक अंधविश्वास आपको अंगदान करने से रोकते हैं तो महान ऋषि दधीचि को याद कीजिए, जिन्होंने लोकहित में अपनी हड्डियां दान कर दी थीं। कुछ लोग सोचते हैं कि जो अंग हम दान कर देते हैं, वो अगले जन्म में शरीर में नहीं रहेगा। है ना कितनी हास्यास्पद सोच! यदि आपने लिवर या किडनी का दान किया है तो अगले जन्म में ये दोनों अंग नहीं होंगे? कोई इनसे पूछे कि अगर ये दोनों अंग नहीं होंगे, तो अगला जन्म कैसे संभव है? फिर अगला जन्म किसने देखा?
अंगदान के माध्यम से एक इंसान (मृत और कभी-कभी जीवित भी) अपने स्वस्थ अंगों और टिशूज को ट्रांसप्लांट कर 50 जरूरतमंद लोगों की मदद कर सकता है।
देश में प्रतिवर्ष तकरीबन पांच लाख लोगों की मृत्यु केवल अंगों के नाकाम होने के कारण होती है, जिसमें 2 लाख लोग लिवर फेल्योर, 1.5 लाख लोग किडनी फेल्योर के कारण मरते हैं। आश्चर्य की बात है कि सालाना डेढ़ लाख किडनी में से केवल 5 हजार किडनी ही उपलब्ध हो पाती हैं। वहीं रोशनी की आस देख रहे एक लाख दृष्टिहीनों पर सिर्फ पच्चीस हजार आंखें ही उपलब्ध हो पाती हैं। जरूरत के मुताबित बेहद कम आपूर्ति की वजह से ही मानव अंगों की तस्करी, बच्चों के गुम होने और धोखाधड़ी कर अंग निकालने की घटनाएं दिनोंदिन बढ़ रही हैं।
अंगदान महादान है, जिसके जरिए आप कई जरूरतमंदों को नई जिंदगी दे सकते हैं। इसके दो तरीके हो सकते हैं। अनेक एनजीओ और अस्पतालों में अंगदान से संबंधित काम होता है। इनमें से कहीं भी जाकर आप एक फॉर्म भरकर संकल्प कर सकते हैं कि आप मरने के बाद अपने इस-इस अंग को दान करना चाहते हैं। हां, दान का संकल्प करने के पश्चात ये जरूर याद रखें कि अपने परिवार को इस बात की जानकारी दे दें। अंगों का प्रत्यारोपण 6 से 12 घंटे के भीतर कर दिया जाना चाहिए। जितना जल्दी प्रत्यारोपण होगा, उस अंग के काम करने की क्षमता और संभावना उतनी ही ज्यादा होगी।
एक नवजात शिशु से लेकर 90 साल के बुजुर्ग तक अंगदान कर सकते हैं। केरल के तिरुवंतपुरम में तीन साल की अंजना ने अपनी दोनों किडनियां, लिवर और कॉर्निया का दान किया। तीन साल की बेटी ये काम कर सकती है तो हम क्यों नहीं!
-लेखक बीमा अधिकारी हैं।
Thursday, 5 November 2015
Sunday, 1 November 2015
Thursday, 29 October 2015
Monday, 26 October 2015
Tuesday, 20 October 2015
निन्दक नियरे राखिए …! वेबसाइट hindisatire.com 20 अक्टू 2015
निन्दक नियरे राखिए …! वेबसाइट hindisatire.com 20 अक्टू 2015
निन्दक नियरे राखिए …!
— 20/10/2015 0 7
(अतिथि व्यंग्यकार) देवेन्द्रसिंह सिसौदिया
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
आज से आठ सौ वर्ष पूर्व महान सन्त कबीर दास जी ने जब ये दोहा लिखा होगा तब कल्पना भी नहीं की होगी कि निंदकों की कितनी दुर्गति होगी। आज कौन है जो निन्दकों को अपने साथ रखता है । मौका पाते ही उन्हें निन्दा करने के लिए स्वतन्त्र कर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है । दिल्ली ऐसे निन्दकों की राजधानी है । जो कल तक कन्धे से कन्धे मिलाकर सत्ता के गलियारे में घुमते थे वो आज गलियारों से बाहर धकेल दिये गए है । कारण, बस निन्दा रास नहीं आई।
ऐसा नहीं कि टिप्पणीकार नहीं होते हैं । हर दल में प्रवक्ता इसी का काम करते है किंतु उन्हें केवल विपक्षियों के ऊपर हमला करने के उद्देश्य से टिप्पणी करने की स्वतंत्रता होती है । पर कुछ टिप्पणीकार नमक हरामी कर बैठते है और स्वयँ के ही दल की निन्दा करने पर गुरेज नहीं करते । इस युग में कौन होगा जो अपनी निन्दा को प्रोत्साहित करे । ये जमाना तो चापलूसी का है जितनी अधिक चापलूसी उतना बड़ा ओहदा पाने की गारंटी होती है ।
चापलूसी कहाँ नहीं होती, पति-पत्नी एक दूसरे की करते है, कर्मचारी बॉस की करते है, कार्यकर्ता हाईकमान की करते, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की करते है । ये एक दौर है जो परस्पर रिश्तों को मजबूती प्रदान करता है । जो व्यक्ति इसके मर्म को नहीं समझता वो समझो अनाड़ी । चापलूसी एक सिस्टम है या कहे कि शिष्टाचार तो गलत नहीं होगा ।
चापलूसी और निन्दा एक दूसरे के विपरित अर्थ वाले महत्वपूर्ण शब्द है । चापलूसी करना एक कला है, एक विज्ञान है जबकि निन्दा करना मूर्खता का पर्याय है । कोई भी व्यक्ति किसी की भी निन्दा कर सकता है किंतु हर व्यक्ति चापलूसी नहीं कर सकता है । चापलूसी के अनेक फायदे है किंतु निन्दा से कोई फायदा नहीं मिलता, इसका इतिहास गवाह है ।
निन्दकों को नियर ( करीब ) रखना तो दूर अब तो इन्हें कोई आस-पास भी नहीं फटकने देता । अनुशासन नामक चाबूक इनके लिए विशेष रुप से हर दल में रहता है । आपने निन्दा की और ये तुरंत अपना काम चालू कर देता है ।
निन्दक भी अपनी कार गुजारियों से बाज नहीं आते । पता होने के बाद भी आप ‘आप’ के नहीं हो पाते और ‘आप’ से बाहर कर दिये जाते हैं । इतिहास गवाह है ऐसे निन्दकों को कई बार बाहर का रास्ता दिखाया गया पर वे फिर एक नया दल बनाकर राजनीति के दलदल में जाकर खिल जाते है ।
अब देखिए जो वर्षों से एक दूसरे की निन्दा कर रस का आनन्द ले रहे थे आज एक ही टेंट में आकर खड़े हो गए । इसके पीछे भी एक ही मकसद है ‘राजा’ की निन्दा मिल कर करना। ये अलग बात है कि ये एक राजनैतिक दल की बजाए वृद्धाश्रम अधिक नजर आ रहा है । वर्तमान में निदंकों के लिए ये दोहा अधिक सार्थक लगता है –
निन्दक साथ रहिये, राजा को देने भगाय।
बिन दल के क्या वजूद, नया दल बनाय।।
ऐसा नहीं कि टिप्पणीकार नहीं होते हैं । हर दल में प्रवक्ता इसी का काम करते है किंतु उन्हें केवल विपक्षियों के ऊपर हमला करने के उद्देश्य से टिप्पणी करने की स्वतंत्रता होती है । पर कुछ टिप्पणीकार नमक हरामी कर बैठते है और स्वयँ के ही दल की निन्दा करने पर गुरेज नहीं करते । इस युग में कौन होगा जो अपनी निन्दा को प्रोत्साहित करे । ये जमाना तो चापलूसी का है जितनी अधिक चापलूसी उतना बड़ा ओहदा पाने की गारंटी होती है ।
चापलूसी कहाँ नहीं होती, पति-पत्नी एक दूसरे की करते है, कर्मचारी बॉस की करते है, कार्यकर्ता हाईकमान की करते, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की करते है । ये एक दौर है जो परस्पर रिश्तों को मजबूती प्रदान करता है । जो व्यक्ति इसके मर्म को नहीं समझता वो समझो अनाड़ी । चापलूसी एक सिस्टम है या कहे कि शिष्टाचार तो गलत नहीं होगा ।
चापलूसी और निन्दा एक दूसरे के विपरित अर्थ वाले महत्वपूर्ण शब्द है । चापलूसी करना एक कला है, एक विज्ञान है जबकि निन्दा करना मूर्खता का पर्याय है । कोई भी व्यक्ति किसी की भी निन्दा कर सकता है किंतु हर व्यक्ति चापलूसी नहीं कर सकता है । चापलूसी के अनेक फायदे है किंतु निन्दा से कोई फायदा नहीं मिलता, इसका इतिहास गवाह है ।
निन्दकों को नियर ( करीब ) रखना तो दूर अब तो इन्हें कोई आस-पास भी नहीं फटकने देता । अनुशासन नामक चाबूक इनके लिए विशेष रुप से हर दल में रहता है । आपने निन्दा की और ये तुरंत अपना काम चालू कर देता है ।
निन्दक भी अपनी कार गुजारियों से बाज नहीं आते । पता होने के बाद भी आप ‘आप’ के नहीं हो पाते और ‘आप’ से बाहर कर दिये जाते हैं । इतिहास गवाह है ऐसे निन्दकों को कई बार बाहर का रास्ता दिखाया गया पर वे फिर एक नया दल बनाकर राजनीति के दलदल में जाकर खिल जाते है ।
अब देखिए जो वर्षों से एक दूसरे की निन्दा कर रस का आनन्द ले रहे थे आज एक ही टेंट में आकर खड़े हो गए । इसके पीछे भी एक ही मकसद है ‘राजा’ की निन्दा मिल कर करना। ये अलग बात है कि ये एक राजनैतिक दल की बजाए वृद्धाश्रम अधिक नजर आ रहा है । वर्तमान में निदंकों के लिए ये दोहा अधिक सार्थक लगता है –
निन्दक साथ रहिये, राजा को देने भगाय।
बिन दल के क्या वजूद, नया दल बनाय।।
(Disclaimer : इसमें व्यक्त विचार लेखक के हैं। वेबसाइट hindisatire.com इसके लिए जवाबदेह नहीं है।)
Tuesday, 13 October 2015
Monday, 5 October 2015
Monday, 21 September 2015
Saturday, 19 September 2015
Wednesday, 16 September 2015
Thursday, 10 September 2015
Sunday, 6 September 2015
स्कूलों के स्तर को सुधारने हेतु शिक्षकों को सम्मानजनक वेतन दें

देवेन्द्रसिंह सिसौदिया
इलाहबाद हाई कोर्टॅ के आदेश, सरकारी स्कूलों मे नौकरशाहों और जनप्रतिनिधियों
के बच्चों के अनिवार्य रुप से पढाने का पूरे देश में स्वागत किया जा रहा है । इस
आदेश का मूल उद्देश्य सरकारी स्कूलों के गिरते स्तर पर नियंत्रण पाना है । एक हद
तक ये उचित भी प्रतीत होता है । किंतु ये मान लेना कि केवल होदेदार लोगों के
बच्चों को वहाँ भेज देने भर से स्तर सुधर
जाएगा भी गलत है । स्कूलों में शिक्षा के गिरते स्तर के अनेक कारण है ।
स्कूलों के जर्जर भवन, मूलभूत जरुरतों का अभाव,
शिक्षकों का गैर शैक्षणिक कार्यों में व्यस्त रखना, आठवी स्तर तक उत्तीर्ण करने की
अनिवार्यता, शिक्षकों के तबादलों में राजनैतिक हस्तक्षेप, शिक्षकों में प्रशिक्षण
का अभाव, उच्च अधिकारियों के द्वारा गुणवत्ता नियंत्रण दौरों की औपचारिकता जैसे
अनेकों कारण है जो सरकारी स्कूलों को दोयम दर्जे पर ला खड़ा कर देती है । इनके
अलावा हमारे सरकारी स्कूलों के गिरते स्तर के कारण में प्रमुख कारण शिक्षकों का
सम्मानीय स्थान प्रदान न करना है ।
प्रदेशों के स्कूलों में जो शिक्षक़ कार्य करते
हैं उनके कई पदनाम और वेतनमान है । यहाँ व्याख्याता,
शिक्षक , सहा शिक्षक, सहा अध्यापक, संविदा शिक्षक , अतिधि शिक्षक , गुरुजी जैसे पद
निर्मित है । हर पद के दो तीन वर्ग है । प्रत्येक
पद और वर्ग के भिन्न भिन्न वेतन
मान । वेतनमान भी ऐसा की उसी स्कूल के स्थाई भृत्य को प्राप्त वेतन से आधा !
एक ओर बच्चों को ये शिक्षा दी जाती है कि जातिवाद
और वर्गभेद नहीं करना चाहिए । वहीं जो ये ज्ञान दे रहा है वो स्वयँ वर्गभेद का
शिकार हो रहा है । एक समान कार्य करने के पश्चात उनके बीच वर्गभेद करते हुए अलग
अलग वेतन दिया जाता है । ये कितनी बड़ी विडम्बना है कि बुद्धीजीवी कहलाने वाले इस
पेशे में एक को पाँच हजार रु रोज मिलते है तो दूसरी ओर मात्र पाँच हजार रुपये
प्रति माह ।
पिछ्ले
पच्चीस वर्षों से स्थाई पद पर नियुक्ति न करते हुए जब भी जो सरकार आई उन्होंने
विभिन्न स्रोत के माध्यम से अस्थाई तौर पर अलग अलग नाम से शिक्षकों की भर्ती
की । सम्भव है इसके पीछे को कोई राजनैतिक
उद्देश्य रहा हो ।
देश में व्याप्त बेरोजगारी के कारण उच्च अहर्ता
प्राप्त युवा इतने कम वेतन के बावजूद इन सेवाओं में मजबूरीवश आ जाते हैं । इसके
पीछे केवल एक कारण है कि भविष्य में उन्हें सरकारी नौकरी स्थाई कर उचित वेतन मिल
जाएगा । वर्षों के संघर्ष और आन्दोलनों के पश्चात वेतन, सेवाशर्तों और सुविधाओं
में जरुर सुधार आया है किंतु अभी भी सम्मानजनक नहीं है ।
देश के लगभग पचास प्रतिशत शिक्षक अस्थाई तौर पर
न्यूंतम वेतन पर कार्य कर रहे हैं । वेतन को लेकर शिक्षकों में हीन भावना बड़ रही
है । उसी योग्यता वाले निजी स्कूलों के शिक्षकों का वेतन उनसे बेहतर होता है ।
वहाँ केवल तीन स्तर होते हैं – प्री प्राइमरी टीचर, ट्रेन्ड ग्रेजुएट टीचर और पोस्ट
ग्रेजुएट टीचर । इनने लिए न्यूंतन अहर्ता माण्टेसरी, बेसीक, बीएड और एम एड है । कई
बार देखने में आता है कि पीचडी, एम फील जैसी उच्च योग्यता रखने वाले युवा निम्न पद
और न्यूंतन वेतन पर काम करते हैं । इनका वेतन श्रम कानून के अनुसार प्रशिक्षित
श्रमिकों से भी कम होता है । ये श्रम कानून के उल्ल्ंघन के साथ ही शोषण भी है । यदि
शासन सरकारी स्कूलों की गुणवता को कायम रखना चाह्ती है तो विभिन्न उपायों के साथ शिक्षकों के वेतन मान और पद नाम की खाई
को समाप्त करना चाहिए । जब तक शिक्षकों को उचित सम्मान नहीं मिलेगा वो अपने कार्य
को केवल औपचारिक रुप से निभाते रहेंगे । उनकी तुलना ‘गोविन्द’ से की गई है वहीं उनका वेतन भृत्य गोविन्द से
भी कम हो तो कैसे वो स्वयं के साथ न्याय कर पायेगा, बच्चे उनका सम्मान करेंगे,
समाज में उनकी इज्जत बड़ेगी और वे भविष्य
के प्रति निश्चिंत होंगे ? आशा है
शासन शिक्षक दिवस पर छोटे मोटे सम्मान समारोह की केवल औपचरिकता पूर्ण न करते हुए इनकी आर्थिक
सुदृढता के भी प्रति गम्भीरता से विचार कर
शीघ्र ही समाज में सम्मानजनक स्थान प्रदान करने हेत्तु निर्णय लेगा । जब शिक्षक आर्थिक
और मानसिक रुप से संतुष्ट होगा तो स्वतः ही अपने कार्य में रुचि लेगा और शिक्षा का स्तर सुधरेगा ।
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Friday, 28 August 2015
Thursday, 27 August 2015
Monday, 24 August 2015
Sunday, 9 August 2015
Tuesday, 4 August 2015
Wednesday, 22 July 2015
Monday, 13 July 2015
Tuesday, 30 June 2015
Friday, 26 June 2015
Thursday, 4 June 2015
कविता - पूजा
पूजा
हे भगवान
मुझे माफ़ करना
मैं भी तुम्हें
सजा कर मन्दीर में
करती हृदय से पूजा
पर क्या करुं
मेरी मजबूरी
को केवल तुम्हीं
समझ पाओगे
अगर तुम्हें
आज नहीं
बेचा तो
मेरे पोते की
कैसे हो पाएगी
पेट पूजा ?
तुम तो
जहाँ जाओगी
फैलाओगे
खुशियों की सौगाते
पर मुझे तो
दो जून की रोटी
तब ही
मिल पाएगी
जब तुम
मेरे पास से
किसी और के
पास जाओगे ।
ये मत
सोचना कि
मेरा कोई तुम से
बैर
है
बस समझना कि
गरीबी का फैर है ।
सजना तुम
किसी ओर
के मन्दीर में
मैं सजाए बैठुंगी
तुम्हें अपने
मन
मन्दीर में ।
इसी
विश्वास
के साथ कि
तेरे दर पर
देर है पर अन्धेर नहीं ।
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देवेन्द्रसिंह सिसौदिया Sunday, 31 May 2015
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