Tuesday 20 October 2015

निन्दक नियरे राखिए …! वेबसाइट hindisatire.com 20 अक्टू 2015

निन्दक नियरे राखिए …! वेबसाइट hindisatire.com 20 अक्टू 2015


निन्दक नियरे राखिए …!

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(अतिथि व्यंग्यकार) देवेन्द्रसिंह सिसौदिया
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
आज से आठ सौ वर्ष पूर्व महान सन्त कबीर दास जी ने जब ये दोहा लिखा होगा तब कल्पना भी नहीं की होगी कि निंदकों की कितनी दुर्गति होगी। आज कौन है जो निन्दकों को अपने साथ रखता है । मौका पाते ही उन्हें निन्दा करने के लिए स्वतन्त्र कर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है । दिल्ली ऐसे निन्दकों की राजधानी है । जो कल तक कन्धे से कन्धे मिलाकर सत्ता के गलियारे में घुमते थे वो आज गलियारों से बाहर धकेल दिये गए है । कारण, बस निन्दा रास नहीं आई।
ऐसा नहीं कि टिप्पणीकार नहीं होते हैं । हर दल में प्रवक्ता इसी का काम करते है किंतु उन्हें केवल विपक्षियों के ऊपर हमला करने के उद्देश्य से टिप्पणी करने की स्वतंत्रता होती है । पर कुछ टिप्पणीकार नमक हरामी कर बैठते है और स्वयँ के ही दल की निन्दा करने पर गुरेज नहीं करते । इस युग में कौन होगा जो अपनी निन्दा को प्रोत्साहित करे । ये जमाना तो चापलूसी का है जितनी अधिक चापलूसी उतना बड़ा ओहदा पाने की गारंटी होती है ।
चापलूसी कहाँ नहीं होती, पति-पत्नी एक दूसरे की करते है, कर्मचारी बॉस की करते है, कार्यकर्ता हाईकमान की करते, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की करते है । ये एक दौर है जो परस्पर रिश्तों को मजबूती प्रदान करता है । जो व्यक्ति इसके मर्म को नहीं समझता वो समझो अनाड़ी । चापलूसी एक सिस्टम है या कहे कि शिष्टाचार तो गलत नहीं होगा ।
चापलूसी और निन्दा एक दूसरे के विपरित अर्थ वाले महत्वपूर्ण शब्द है । चापलूसी करना एक कला है, एक विज्ञान है जबकि निन्दा करना मूर्खता का पर्याय है । कोई भी व्यक्ति किसी की भी निन्दा कर सकता है किंतु हर व्यक्ति चापलूसी नहीं कर सकता है । चापलूसी के अनेक फायदे है किंतु निन्दा से कोई फायदा नहीं मिलता, इसका इतिहास गवाह है ।
निन्दकों को नियर ( करीब ) रखना तो दूर अब तो इन्हें कोई आस-पास भी नहीं फटकने देता । अनुशासन नामक चाबूक इनके लिए विशेष रुप से हर दल में रहता है । आपने निन्दा की और ये तुरंत अपना काम चालू कर देता है ।
निन्दक भी अपनी कार गुजारियों से बाज नहीं आते । पता होने के बाद भी आप ‘आप’ के नहीं हो पाते और ‘आप’ से बाहर कर दिये जाते हैं । इतिहास गवाह है ऐसे निन्दकों को कई बार बाहर का रास्ता दिखाया गया पर वे फिर एक नया दल बनाकर राजनीति के दलदल में जाकर खिल जाते है ।
अब देखिए जो वर्षों से एक दूसरे की निन्दा कर रस का आनन्द ले रहे थे आज एक ही टेंट में आकर खड़े हो गए । इसके पीछे भी एक ही मकसद है ‘राजा’ की निन्दा मिल कर करना। ये अलग बात है कि ये एक राजनैतिक दल की बजाए वृद्धाश्रम अधिक नजर आ रहा है । वर्तमान में निदंकों के लिए ये दोहा अधिक सार्थक लगता है –
निन्दक साथ रहिये, राजा को देने भगाय।
बिन दल के क्या वजूद, नया दल बनाय।।
(Disclaimer : इसमें व्यक्त विचार लेखक के हैं। वेबसाइट hindisatire.com इसके लिए जवाबदेह नहीं है।)