Saturday 14 March 2015

व्यंग्य आलेख - मनसुख के मन की बात

मनसुख के मन की बात
देवेन्द्रसिंह सिसौदिया
मनसुख कभी अनियमित बरसात तो कभी अतिवृष्टी और औलावृष्टी से त्रस्त था कोई उससे उसके मन की बात कोई जानना ही नहीं चाहता है । वो कुंठाओं से ग्रसीत हो गया था क्योंकि उसके एक किसान साथी ने तो इन सब से परेशान होकर आत्महत्या कर ली थी । हर कोई अपनी बात कह जाता था ।  क्या उसका मन नहीं है, क्या उसके मन में कोई बात नहीं आती, क्या उसे अपने मन की बात बताने का कोई अधिकार नहीं है ? अंततः मुझे उसकी परेशानी देखी नहीं गयी । मैंने सोचा चलो हम ही इसके मन की बात सुन लेते, ताकि इसका मन थोड़ा हलका हो जाये और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भरोसा  । सो हम उसके करीब पहुँच ही गए और बोला, ‘बताओ मनसुख अपने मन की बात । ‘
        मनसुख कुछ कहता उसके पहले ही उसकी आँखों के पानी ने बयाँ कर दी कि उसे कितनी खुशी हुई कि कोई तो है जो उसके मन की बात को समझने का प्रयास कर रहा है  ।  चूँकि मुझे उसके मन की बात जानना थी सो बगैर कोई प्रश्न किये कहा, ‘मनसुख  खूल कर निर्भिक होकर बताओ अपने मन की बात ।‘  
मनसुख ने अपने जेब से एक कार्ड निकाला और कहा साहब इसे जॉब कार्ड कहते है । इसे बता कर हमें काम मिलता है । कई बार मैं इसे लेकर काम मांगने गया किंतु कहते है ये फर्जी है । इस नाम से तो पहले से ही कोई काम कर रहा है । कहते, ‘तुम अपनी आदत से बाज नहीं आओगे । भागो नहीं तो पुलिस के हवाले कर देंगे ।‘ बताईये साहब, ‘मैं क्या करुँ मेरा तो वोट भी कोई और डाल गया था और जॉब भी कोई और मैरे नाम पर कर रहा है ?
मनसुख कुछ् बता ही रहा था कि इस बीच उसकी पत्नी भी आ गयी । कहने लगी ‘साहब एक तो जॉब नहीं है और दूसरी तरफ कई दिनों से राशन की दुकान भी नहीं खुली है ।‘ ठेकेदार से पूछो तो कहता है ऊपर से माल नहीं आया है । बताओ साहब, ‘भूख भी किसी का इंतजार करती ? वो तो टेम टू टेम लग जाती है । पता नहीं  हमारा माल कहाँ जाता है ?’ लोग कहते है ‘गरीब का माल, मॉल में बिक रहा है और नीचे से ऊपर तक के लोग मालामाल हो रहे है !’
सरपंच साहब से हमने ये बात कही थी । वो गाँव के लोगों की बात लेकर शहर बड़े अफसरों से मिलने गए थे । शहर से आकर उन्होंने हम सब लोगों का मुहँ भी मीठा करावाया था बड़ी गाड़ी में जो पूरे परिवार के साथ लौटे थे ।
साहब सरकारी स्कूल के ताले ही नहीं खूलते ऐसे में हमारे बच्चों का भविष्य खराब हो रहा था । उसकी चिंता हमें खाए जा रही थी तभी आप जैसे किसी साहब ने बताया कि तुम गाँव के प्राईवेट स्कूल में “शिक्षा के अधिकार “ के तहत  बच्चों का दाखिला क्यों नहीं करवा देते, गरीब बच्चों को तो फीस भी नहीं लगती ? हमने हिम्मत कर वहाँ आवेदन किया था । किस्मत तो हमारी ही फूटी थी साहब वहाँ भी धोखा दे गयी । हमारे अधिकारों पर वहाँ भी अतिक्रमण हो गया और  मालिक के बच्चे का दाखिला हो गया साहब । कहते कहते मनसुख की पत्नी के आँखों में पानी आ गया । साहब मेरे बच्चे तो अभी भी स्कूल के आसपास मास्टर के इंतजार में बैठे रहते है । साहब, ‘पेले तो माड़साब दो चार दिन में हाजरी रजिस्टर कम्पलीट करने आते थे किंतु सुना है  अब तो सरकार ने इससे भी  छूट दे दी है । कहते है कि मोबाईल सेज हाजरी लग जाए तो स्कूल क्यों जाए ?’  
हम मनसुख और उसकी पत्नी के मन की बात सुन रहे थे कि इस बीच उसका चार साल का बच्चा रेंगते हुए बाहर आया । मुझे समझने में देर नहीं कि ये लकवा ग्रस्त  है । उसकी माँ बोल पड़ी देखो साहब दो साल पहले इसे तेज़ बुखार आया था । ‘सरकारी दवाखाना तो है नी गाँव में वो बंगाली डाक साहब को दिखाया था । भला हो, डाक साहब को जो तत्काल पिचकारी लगा दी जिससे बुखार उतर गया । बस ये अपने पैर पर खड़ा नहीं हो पाया है ।‘ माँ उसे अपनी गोद में बिठा कर दुलार के साथ सर पर हाथ फेर रही थी । 
मनसुख के परिवार के  मन की बात मैं अच्छी से समझ गया । ये लोग किस्मत के मारे नहीं है अपितु हमारे देश की लकवाग्रस्त व्यवस्था के शिकार है ।  क्या हम ही अपने मन की बात इन्हें सुनाते रहेंगे या फिर कभी इन गरीब किसानों के  मन की बात सुन कर अच्छे दिनों के सपनों को पूरा करेंगे ?
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