Friday 17 October 2014

वेब दुनिया व्यंग्य मोबाइल : जीवन के साथ भी - जीवन के बाद भी दि 17/10/2014

मोबाइल : जीवन के साथ भी-जीवन के बाद भी

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014 (10:48 IST)
देवेन्द्रसिंह सिसौदिया  
 
मोबाइल हर आयु,वर्ग,और लिंग के लोगों के लिए अति आवश्यक वस्तु बन चुका है। व्यक्ति भोजन के बिना दिन आसानी से बिता सकता है किंतु मोबाइल के बगैर तो एक पल भी नहीं गुजार सकता है। यह हर व्यक्ति के लिए रोटी, कपड़ा और मकान के साथ चौथी आधारभूत जरुरत बन चुका है। जितना बड़ा मोबाइल उतनी ही बड़ी समाज में उसकी इज्जत। एक समय था इसे भी जीरो फीगर के रुप में पसंद किया जाता था किंतु अब इसका फिग़र चप्पल का रुप ले चुका है।  


 
जीवन के हर कदम पर इसकी आवश्यकता महसूस की जाती है। इसके डयूटी सुबह मूर्गे की बांग के समान अलार्म बजा कर उठाने से प्रारम्भ होती है। भजन सुनाना, योग क्रियाएं करवाना, फेस बुक के जाने अनजाने फ्रेंड्स से मिलवाना, गुड मार्निंग के मैसेज दिलवाना, एक से एक उपदेशात्मक संदेश पंहुचाना, गुगल के माध्यम से अनेक वेबसाइट्स की यात्रा के साथ रात को मां की तरह लोरी सुना कर सपनों की दुनिया तक ले जाने का काम ये बड़ी बखूबी से निभा रहा है। 
 
यदि हम कहे कि ये हमारे जीवन का मार्गदर्शक है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हम फेस बुक और व्हाट्स एप के संदेशों को लाइक कर, शेअर कर और कमेंटस कर कई लोगों के दिल में स्थान बना चुके हैं। हमारा पूरा समाजशास्त्र मोबाइल के भीतर समा गया है। सारे रिश्ते इसी के माध्यम से निभाए जा रहे हैं। 


 
इसके प्रति प्रेम पागलपन की हद तक पहुंच गया है। एक समाचार के अनुसार एक लड़्की मोबाइल से बात करने में इतनी मगन हो गई थी कि वो रेल से कट गई तो एक नाले में गिर गई। एक लड़्की सेल्फी लेते लेते छ्त पर इतनी पीछे हट गई कि वह नीचे गिर गई। रोड़ पर भी आपने देखा होगा कई लोग मन ही मन बड़्बड़ाते हुए चलते हैं जैसे कोई  मानसिक विक्षिप्त हो। कई लोगों की तो सिर और कंधों के बीच इसे दबा कर गाड़ी पर बतियाने से गरदन ही तिरछी हो गई। 
 
कुछ लोगों का सोचना है कि जब से मोबाइल आया है तब से लोग लैंडलाइन को भूल गए हैं। लैंडलाइन भी गधे के सिंग और घर के रेडियो की तरह गायब हो चुका है। इसी बात की चिंता करते हुए एक कंपनी ने उसकी बैटरी को इतना कमजोर बनाया है कि आपको अक्सर मोबाइल चार्जिंग पर लगा कर रखना पड़्ता है ताकि लैंडलाइन का आभास होता रहे।
 

 
इसकी तारीफ में एक डाक्टर ने तो कुछ शब्द ईजाद किए हैं। जैसे यदि मोबाइल चार्जिंग पर लगा है तो कहते है सलाइन लगी हुई है, यदि मोबाइल हेंग हो जाता है तो कहते है इसका ई.सी.जी ठीक नहीं है, इसमें वायरल इंफेक्शन हो चुका है इसे एंटी वायरल (वायरस) ड्रीप लगाना होगी। इसका कीडनी (सॉफ्टवेअर) ठीक से काम नहीं कर रहा है इसे शीघ्र ही डायलसिस (फार्मेट) करना होगा ।      


 
व्हाटसएप, फेसबुक टवीटर और भी बहुत कुछ इसके सगे भाई-बहन है। इन सब को चलाने कि लिए मोबाइल नाम के श्री य्ंत्र का होना ठीक वैसा ही है जैसे शरीर के भीतर आत्मा का । ये हर घर, हाथ, पर्स, और पॉकेट में पाया जाता है। इसके पहुंच शमशान घर तक हो चुकी है। शमशान तक मुर्दे को एक से एक रिंग टोन सुनाई जाती है ताकि उसे इस संसार को छोड़ कर जाने का दुख न हो। जो संगी-साथी, नाते-रिश्तेदार अंतिम क्रिया के समय तक नहीं पहुंच पाए उनको इसके माध्यम से अंतिम दर्शन कराए जाते हैं। अंतिम संस्कार के बाद इसकी भूमिका समाप्त नहीं होती। तेरहवीं की पूजा हो या  श्राद्ध पक्ष इसे मृत आत्मा की शांति के लिए, पंडित जी को लालटेन, छाता, चप्प्ल के साथ दान किया जा रहा है। मोबाइल जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी काम आने लगा है। 

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वेब दुनिया व्यंग्य चुनावी घोषणा पत्र दिनांक 17 अक्टूबर 2014

व्यंग्य रचना : चुनावी घोषणा पत्र

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014 (11:40 IST)
देवेन्द्रसिंह सिसौदिया   

लेखकों के लिए यह बेहद कठिन समय चल रहा है। आचार संहिता का पालन करना उनका परम धर्म और नैतिक कर्तव्य भी है। एक व्यंगकार, दो महीने तक व्यंग्य न लिखे तो उसका हाज़मा बिगड़ना तय है। इससे बचने कि लिए एक ही रास्ता था।  कुछ ऐसा लिखे जो आचार संहिता के दायरे में न आए। सो मैंने घोषणा-पत्र लिखने की ठान ली।

निर्णय लेना तो बड़ा आसान था किंतु अंजाम देना नहीं। तमाम सारे प्रश्न मेरे समक्ष थे। किस दल के लिए घोषणा-पत्र बनाया जाए, घोषणा-पत्र में क्या लिखा जाए, घोषणा पत्र की भाषा कौन सी और कैसी हो, घोषणा-पत्र की मार्केटिंग कैसे की जाए, घोषणा पत्र ऐसा दस्तावेज न बन जाए जिसे कोई बकवास कह कर कूड़े के डिब्बे में फेंक दे और अंत में- घोषणा-पत्र के लिए क्या पारिश्रमिक रखा जाए? ऐसे तमाम सारे प्रश्न थे जो मुझे झकझोर रहे थे। 
तभी मेरी बेटी आई बोली क्या परेशानी है? मैंने अपनी उलझनों को उसके समक्ष रखा। उसने कहा एक बार शुरुआत तो कीजिए सब ठीक हो जाएगा। मुझे अरस्तू का ये सुविचार याद आया कि 'अच्छी शुरुआत से आधा कार्य संपन्न हो जाता है। 
इस कार्य की शुरुआत करने के लिए हमने विभिन्न दलों के पिछले चुनावों के घोषणा-पत्रों को एकत्रित किया ताकि उनका अध्ययन किया जाए। अरे ये क्या, पिछले कई चुनावों के घोषणा-पत्रों में कोई अंतर ही नहीं है! अंतर आता भी कैसे, वर्षों से गरीबी, भ्रष्टाचार और महंगाई हमारी जनता को मुंह चिढ़ाती आ रही है वहीं राजनैतिक दल इनसे मुक्ति दिलाने के नाम पर चुनाव के बाद ठेंगा दिखा देते हैं। मैंने सोचा, नहीं इस बार कोई नए मुद्दे लाए जाए। बस निकल पड़ा देश भ्रमण के लिए। 
रेड कॉरपेट से रेड लाइट एरिया, रेलवे प्लेटफार्म और मलीन बस्तियां सभी दूर गया। इन बस्तियों के रहवासियों, आम ग्रहणियों, गरीब किसानों, रेहड़ी वालों से मिला किंतु सभी वर्गों का एक ही दर्द था गरीबी, भ्रष्टाचार और मंहगाई। 
देश भ्रमण के पश्चात मैंने घोषणा पत्र लिखने की शुरुआत की। सर्वप्रथम मैंने देश की जनता की आवश्यकता के मुताबिक मुद्दों को एक स्थान पर लिखना प्रारंभ किया। भ्रष्टाचार, गरीबी, मह्ंगाई, नारी उत्पीड़न (नारी सशक्तिकरण), आरक्षण, राजनीति से अपराध (दागी नेताओं को) को दूर रखने,  देश की शिक्षा नीति, कृषि नीति, आर्थिक नीति, विदेशी व्यापार नीति, रक्षा नीति, विदेश नीति, आयात-निर्यात नीति, युवा नीति, राष्ट्रीय रोजगार नीति, स्वास्थ्य नीति और प्रदूषण को प्रमुख स्थान मिला। हर मुद्दे को स्पष्ट करते हुए मैंने उससे निपटने और लागू करने के लिए समयावधि और कार्य योजना भी तय की। एक घोषणा-पत्र का कच्चा मसौदा लगभग तैयार था। घोषणा पत्र उस राजनैतिक दल के सिद्धांत, नीति और नियत को प्रकट करने वाला एक महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है फिर चाहे वह एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ बन जाए।

मसौदा लेकर मैं तैयार था कोई दल आए और मुझे घोषणा-पत्र बनाने के लिए आदेशित करे। एक दिन मुझसे एक राष्ट्रीय दल के नेता ने सम्पर्क किया और अपनी इच्छा व्यक्त की। मैंने भी अपनी उत्कंठा को शांत करने के उद्देश्य से ढेर सारे प्रश्न कर डाले। नेताजी बोले 'अरे, खामखा इतने प्रश्न किये जा रहे हो। हमने कौनसा तुम्हें रामायण या महाभारत लिखने के लिए कह दिया है जिनका अनुसरण लोग करेंगे। आप तो इतने गंभीर हो गए हमें कौन से इन वादों को पूरा करना है? मैंने पूछा 'नेताजी इन वादों के साथ कोई समयावधि और कार्ययोजना का भी समावेश करे'। 
नेताजी बोले 'अरे, भाई इतनी मेहनत किए हो और आपकी तीव्र इच्छा है तो कर दीजिए'। 
अब बात आई पारिश्रमिक की, तो बोले 'भाई, चुनाव जीत गए तो बना देंगे किसी साहित्य संस्था या अकेदमी का अध्यक्ष । 
हम लग गए घोषणा-पत्र को तैयार करने में। इसी बीच एक ओर दल से फोन आ गया। 'भाई, हमने सुना है आप किसी दल का घोषणा पत्र बना रहे हैं?  
“हाँ, जी ठीक सुना आपने” । 
“अरे, तो भाई कुछ मुद्दों को अल्टर कर हमारा भी तैयार कर दो” । 
फिर भी नेताजी आपके द्ल के कुछ सिद्धांत और नीतियां अलग होंगी। कृपा करके मुझे बता दे ताकि उसके अनुसार घोषणा पत्र बनाया जा सके।
“अरे, छोड़ो जी सिद्धांत-विद्धांत हमें तो मतदाता को मोहित करने वाला लोकलुभावन अच्छे दिन के ख्वाब दिखाने वाला  घोषणा पत्र चाहिए सो आप बना दीजिए” । पारिश्रमिक की कतई चिंता मत कीजिए, हम आपको मंत्री पद से नवाज़ देंगे। 
हमें भी लाल बत्ती दिखने लगी सो दस-बीस लोक-लुभावन घोषणा-पत्र के सेट तैयार कर लिए हैं। हमारी  दुकान इन रेडीमेड घोषणा-पत्रों से सु-सज्जित है। बोलो भऊ, आपको कौनसा चाहिए?



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