व्यंग्य
रचना : शहर का फागोत्सव भगोरिया
देवेन्द्रसिंह सिसोदिया
आदिवासी अंचल में 7 दिवसीय सांस्कृतिक लोकपर्व भगोरिया मनाया जा रहा
है। ये पर्व फाल्गुन माह में होली दहन के 7 दिन पूर्व से प्रारम्भ
होता है ये पर्व हमारे शहरों मे वर्ष में एक बार मनाने वाले वेलेंटाइन डे के
समान होता है। इस पर्व के दौरान आदिवासी लड़के-लड़कियां अपने प्रेम का इज़हार एक
दूसरे से करते हैं। जब प्रेम प्रस्ताव मंजूर होता है तो लड़का-लड़की वहां से
भाग जाते है और उनके गांव वाले शोर करते हुए चिल्लाते है भागरिया- भागरिया। बस ये
भागरिया ही “भगोरिया” में परिवर्तित हो गया। ये परम्परा वर्षों से चल
रही है। परम्परा गांव के बड़े-बुजुर्गों के समक्ष उनके हाजरी में आज भी जारी है।
आज
शहरों मे देखा जाए तो ऐसे प्रेम प्रस्तावों का दौर टीन एज़ के बच्चों से ही
प्रारम्भ हो चुका है। लड़के- लड़कियां दिन भर एक-दूसरे के बाहों में बाहें डाले बाईक
पर सवार होकर घूमते हुए पाए जा सकते हैं। पता नहीं ये पढ़ाई कब करते हैं।
वैसे
अभी-अभी पता चला है कि आजकल के बच्चे आंइस्टीन से भी अधिक इंटलिजेंट हो गए हैं।
घंटे भर पढ़ कर परीक्षा रुपी वैतरणी पार कर लेते हैं।
माता
पिता अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई को इनके उपर व्यय इस आशा में करते हैं कि ये अपना व
अपने माता-पिता का नाम रोशन करेंगे, हो सकता है इनमें से कोई आंइस्टीन निकल जाए। महान
वैज्ञानिक न्यूटन ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि किसी भी वस्तु को ऊपर की
ओर उछालो तो पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के प्रभाव से वह तेजी से नीचे के ओर
आती है। इसी प्रकार आजकल के युवक-युवतियां भी इसी बात को सिद्ध करने की होड़ में है
कि जब भी इन्हें स्वतंत्र छोड़ दिया जाए तो कितनी तीव्र गति से इनका नैतिक एवं
चारित्रिक पतन होता है।
हमारे
देश के किसी मॉल में आप विजिट करेंगे तो आपको भगोरिये का पूरा आनन्द मिलेगा। यहां
पर पूरे साल प्रेमी-प्रेमिकाओं को विचरण करते आसानी से आप देख सकते हैं। आपको कभी
भगोरिया जाने का मौका लगा हो तो आपने देखा होगा कि वहां इन मेलों में मिठाई की
दुकाने, झूले-चकरी,
घोड़ा व ऊंट की सवारी करने को मिलती है। और इन सब से उब जाओ और एकांत
की आवश्यकता हो तो पर्दे वाले टूरिंग सिनेमाघर में फिल्में देखने का शौक भी पूरा किया
जा सकता है। इस प्रकार शहर में तो रोज भगोरिया का त्योहार मनाया जाता है।
कभी-कभी
इन भगोरियों में प्रेम के त्रिकोण की स्थिति भी बन जाती है। ऐसे में जो ताकतवर
होता है वो पूरी ताकत का इस्तमाल करते हुए प्रेयसी पर विजय पा लेता है। इस ताकत के
खेल में हिंसा भी अपना नंगा नाच नाचती है। जी हां इसी प्रकार शहर में भी कई बार
बहुकोणीय प्रेम-प्रसंग देखने में आते हैं। परिणाम वही कुछ राम नाम सत्य हो जाते है
और कुछ जेल को आबाद करते हैं।
वर्ष में एक बार
भगोरियों में लड़के-लड़की शराब का सेवन खुल कर करते हैं। शराब पीकर ये लोग मदमस्त
होकर ढोल और मांदल की थाप पर खूब नृत्य करते हैं। यही दृश्य, आपको अपने शहर के हर चौराहे,
हॉटल, मॉल एवं गलियों में आसानी से प्रतिदिन
देखे जा सकते हैं बस अंतर इतना कि यहां ढोल एवं मांदल के स्थान पर डीजे होता है।
तो भैया निराश न हो हमारी लोक संस्कृति हर शहर में आज भी जिंदा है हालांकि उसका
रूप बदल चुका है!