Thursday 19 March 2015

हमरंग व्यंग्य पद यात्रा’ ‘पद’ और ‘अंतिम यात्रा’: Dt 19 /03/ 2015

पद यात्रा’ ‘पद’ और ‘अंतिम यात्रा’: व्यंग्य (देवेन्द्रसिंह सिसौदिया)

Posted on March 19, 2015  comment comment
व्यंग्यकार की दृष्टि खुद से लेकर अपने आस-पास, सामाजिक और राजनैतिक क्रिया कलापों और घटनाओं,  जो आम तौर पर सामान्य घटनाओं की तरह ही दिखाती हैं, उनमें से भी बेहतर सामाजिक सरोकारों के लिए सार्थक तर्क खोज ही लेतीं हैं जो किसी भी व्यंग्य रचनाकार के लिए उर्वरक होता है | देवेन्द्र सिंह सिसौदिया महज़ यात्रा जैसे शब्द और क्रिया में से साहित्यिक सरोकारों के साथ खोजे हुए तथ्य-कथ्यों को अपनी रचनाशीलता से व्यंग्य रूप दे रहे हैं | हमरंग पर आपकी पहली रचना के साथ स्वागत है  | - संपादक  
देवेन्द्र सिंह सिसोदिया
देवेन्द्र सिंह सिसोदिया

‘पद यात्रा,‘पद’ और ‘अंतिम यात्रा

भारत एक विशालतम देश है यहाँ कई प्रकार की यात्राएँ होती रहती है । तीर्थ यात्रा, रथ यात्रा, चुनरी यात्रा, हज यात्रा, दांडी यात्रा, विदेश यात्रा, जेल यात्रा, पद यात्रा और अंतिम यात्रा । हर यात्रा के गर्भ में कोई न कोई उद्देश्य होता है । जिनमें धार्मिक, सामाजिक, कानूनन और राजनैतिक प्रमुख होते है । वैसे कई बार देखा गया है कि कुछ यात्राओं के पीछे एक से अधिक उद्देश्य होते है । कुछ दिखाई देते है तो कुछ अदृष्य ।
देश को आजादी दिलाने के उद्देश्य से कई सैनानियों ने संग्राम के साथ जेल यात्राएँ की थी । जेल यात्राएँ आज भी होती किन्तु इनके पीछे समाज में अपनी दबंगता को बड़ाने का उद्देश्य होता है । तथाकथित रुप से ये जेल यात्रा कर समाज के समक्ष त्याग का पाठ पढ़ाते है । जेल यात्राएँ करे भी क्यों नहीं ? कब ये स्थान इनका स्थाई निवास बन जाए पता नहीं । जिस जेल का उद्घाटन किया हो वहीं पर आपको रात गुजारना पड़े तो आश्चर्य नहीं । जीवन की सन्धया में भी नेताओं को ये आनन्द मिलते हमने देखा है । इसी अनिश्चतता को दृष्टीगत रखते हुए जेल सुधार पर जोर-शोर से काम चल रहा है । पता नहीं किस घोटाले के आरोप में एक सुरक्षा चक्र से निकल कर दूसरे सुरक्षा चक्र में रहना पड़ जाए ।
चुनरी और रथ यात्राएँ धार्मिक आस्था से अधिक राजनैतिक दबंगता दिखाने का एक सुगम साधन बन चुकी है । इस आस्था के प्रदर्शन के दौरान जितनी लम्बी यात्रा उससे लम्बा जाम, शान को बढाने में चार चान्द लगा देता है । कई बीमार और जख्मियों की कराहन इनके ढोल मजीरों और ताशों की आवाज में दब कर लाशों में बदल जाती है । यात्राओं के पश्चात फैला कचरा स्वच्छ भारत अभियान को मुँह चिढ़ाने में कतई शर्म महसूस नहीं करता ।
संत पुरुष, स्वतंत्रता सैनानी और सामजिक कार्यकर्ता सामाजिक सन्देश या आन्दोलन के उद्देश्य से पद यात्राएँ निकालते आए है । इन यात्राओं से कई सामाजिक सुधार हुए । यात्राओं की वजह से अंग्रेजों को ‘पद’ छोड़ना पड़ा । अब ‘ पद यात्राओं ‘ का स्वरुप और उद्देश्य बदल चुका है । ‘ पद यात्राएँ’ , ‘पद’ तक पहुँचने का एक सुलभ साधन बन चुका है । वही ‘पद यात्रा’ सफल मानी जाती है जो तेजी से ‘पद’ तक पहुँचाने में कामयाब हो ।
अब तो पद यात्रा से भी आगे एक और यात्रा होने लगी है जिसे ‘रोड़ शो’ कहते है । हर चुनाव के पूर्व स्टार प्रचारकों के द्वारा ऐसे शो किये जाते है । स्टार प्रचारक का राजनीति से जुड़ा होना जरुरी नहीं है । रोड शो के रुट का निर्धारण करने से पूर्व बड़ी एतिहात बरती जाती है । इसके लिए आवश्यक है वहाँ रोड़ हो, रोड़ पर आवारा पशु विचरण न कर रहे हो, रोड़ पर गन्दगी न हो, रोड़ पर नाले का पानी न बहता हो, रोड़ पर अतिक्रमण न हो और शो के मार्ग में अंडे और टमाटर की दुकान न हो । इन सब बातों से पुख्ता होने के बाद रोड़ शो कर मतदाताओं को रिझाने का कार्य किया जाता है ।
इन सब यात्राओं से गुजरते हुआ व्यक्ति अंततः अन्तिम यात्रा के मार्ग पर पहुँच जाता है । अंतिम यात्रा भी ठण्ड में सुबह सुबह निकले तो बड़ी त्रासदायी हो जाती है । अंतिम यात्रा अगर कार्यदिवस पर निकले तो एक दिन के अवकाश की बली चड़ जाती है । अंतिम यात्रा के दौरान मुर्दा बौर नहीं हो इस हेतु साथ के लोगों के मोबाईल में एक से एक धुन का शुमार रहता है ।ये कहे कि व्यक्ति के साथ रिश्ते, नाते और बैंक बैलेंस नहीं जाते परंतु रिंग टोन बैंक अंतिम संस्कार तक साथ देता है ।पता नहीं कब बज उठे “ ये जीवन है इस जीवन का यही है रंग-रुप….” । मार्केटिंग ऐसी चीज है जिसमें जितना अधिक झूठ बोला जाए उतना माल बिकता है । बस यही काम अंतिम यात्रा के अंतिम संस्कार के पश्चात श्रृद्धांजली के दौरान उद्बोधन में होता है । अंततः उसके व्यव्हारकुशलता, कार्यकुशलता, सामाजिक जिम्मेदारी और नेतृत्व की क्षमता की बखान कर उसे तथाकथित रुप से स्वर्गवासी होने का स्थाई प्रमाण पत्र जारी कर लौट आते हैं । अंत भला, सो सब भला ।

Writer:देवेन्द्रसिंह सिसौदिया |  Language: हिंदी |  Forms of: व्यंग्य

Saturday 14 March 2015

व्यंग्य आलेख - मनसुख के मन की बात

मनसुख के मन की बात
देवेन्द्रसिंह सिसौदिया
मनसुख कभी अनियमित बरसात तो कभी अतिवृष्टी और औलावृष्टी से त्रस्त था कोई उससे उसके मन की बात कोई जानना ही नहीं चाहता है । वो कुंठाओं से ग्रसीत हो गया था क्योंकि उसके एक किसान साथी ने तो इन सब से परेशान होकर आत्महत्या कर ली थी । हर कोई अपनी बात कह जाता था ।  क्या उसका मन नहीं है, क्या उसके मन में कोई बात नहीं आती, क्या उसे अपने मन की बात बताने का कोई अधिकार नहीं है ? अंततः मुझे उसकी परेशानी देखी नहीं गयी । मैंने सोचा चलो हम ही इसके मन की बात सुन लेते, ताकि इसका मन थोड़ा हलका हो जाये और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भरोसा  । सो हम उसके करीब पहुँच ही गए और बोला, ‘बताओ मनसुख अपने मन की बात । ‘
        मनसुख कुछ कहता उसके पहले ही उसकी आँखों के पानी ने बयाँ कर दी कि उसे कितनी खुशी हुई कि कोई तो है जो उसके मन की बात को समझने का प्रयास कर रहा है  ।  चूँकि मुझे उसके मन की बात जानना थी सो बगैर कोई प्रश्न किये कहा, ‘मनसुख  खूल कर निर्भिक होकर बताओ अपने मन की बात ।‘  
मनसुख ने अपने जेब से एक कार्ड निकाला और कहा साहब इसे जॉब कार्ड कहते है । इसे बता कर हमें काम मिलता है । कई बार मैं इसे लेकर काम मांगने गया किंतु कहते है ये फर्जी है । इस नाम से तो पहले से ही कोई काम कर रहा है । कहते, ‘तुम अपनी आदत से बाज नहीं आओगे । भागो नहीं तो पुलिस के हवाले कर देंगे ।‘ बताईये साहब, ‘मैं क्या करुँ मेरा तो वोट भी कोई और डाल गया था और जॉब भी कोई और मैरे नाम पर कर रहा है ?
मनसुख कुछ् बता ही रहा था कि इस बीच उसकी पत्नी भी आ गयी । कहने लगी ‘साहब एक तो जॉब नहीं है और दूसरी तरफ कई दिनों से राशन की दुकान भी नहीं खुली है ।‘ ठेकेदार से पूछो तो कहता है ऊपर से माल नहीं आया है । बताओ साहब, ‘भूख भी किसी का इंतजार करती ? वो तो टेम टू टेम लग जाती है । पता नहीं  हमारा माल कहाँ जाता है ?’ लोग कहते है ‘गरीब का माल, मॉल में बिक रहा है और नीचे से ऊपर तक के लोग मालामाल हो रहे है !’
सरपंच साहब से हमने ये बात कही थी । वो गाँव के लोगों की बात लेकर शहर बड़े अफसरों से मिलने गए थे । शहर से आकर उन्होंने हम सब लोगों का मुहँ भी मीठा करावाया था बड़ी गाड़ी में जो पूरे परिवार के साथ लौटे थे ।
साहब सरकारी स्कूल के ताले ही नहीं खूलते ऐसे में हमारे बच्चों का भविष्य खराब हो रहा था । उसकी चिंता हमें खाए जा रही थी तभी आप जैसे किसी साहब ने बताया कि तुम गाँव के प्राईवेट स्कूल में “शिक्षा के अधिकार “ के तहत  बच्चों का दाखिला क्यों नहीं करवा देते, गरीब बच्चों को तो फीस भी नहीं लगती ? हमने हिम्मत कर वहाँ आवेदन किया था । किस्मत तो हमारी ही फूटी थी साहब वहाँ भी धोखा दे गयी । हमारे अधिकारों पर वहाँ भी अतिक्रमण हो गया और  मालिक के बच्चे का दाखिला हो गया साहब । कहते कहते मनसुख की पत्नी के आँखों में पानी आ गया । साहब मेरे बच्चे तो अभी भी स्कूल के आसपास मास्टर के इंतजार में बैठे रहते है । साहब, ‘पेले तो माड़साब दो चार दिन में हाजरी रजिस्टर कम्पलीट करने आते थे किंतु सुना है  अब तो सरकार ने इससे भी  छूट दे दी है । कहते है कि मोबाईल सेज हाजरी लग जाए तो स्कूल क्यों जाए ?’  
हम मनसुख और उसकी पत्नी के मन की बात सुन रहे थे कि इस बीच उसका चार साल का बच्चा रेंगते हुए बाहर आया । मुझे समझने में देर नहीं कि ये लकवा ग्रस्त  है । उसकी माँ बोल पड़ी देखो साहब दो साल पहले इसे तेज़ बुखार आया था । ‘सरकारी दवाखाना तो है नी गाँव में वो बंगाली डाक साहब को दिखाया था । भला हो, डाक साहब को जो तत्काल पिचकारी लगा दी जिससे बुखार उतर गया । बस ये अपने पैर पर खड़ा नहीं हो पाया है ।‘ माँ उसे अपनी गोद में बिठा कर दुलार के साथ सर पर हाथ फेर रही थी । 
मनसुख के परिवार के  मन की बात मैं अच्छी से समझ गया । ये लोग किस्मत के मारे नहीं है अपितु हमारे देश की लकवाग्रस्त व्यवस्था के शिकार है ।  क्या हम ही अपने मन की बात इन्हें सुनाते रहेंगे या फिर कभी इन गरीब किसानों के  मन की बात सुन कर अच्छे दिनों के सपनों को पूरा करेंगे ?
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Thursday 5 March 2015

वेब दुनिया इन्दौर दि 05 मार्च 2015 व्यंग्य रचना : शहर का फागोत्सव भगोरिया



व्यंग्य रचना : शहर का फागोत्सव भगोरिया
देवेन्द्रसिंह सिसोदिया 
 
आदिवासी अंचल में 7 दिवसीय सांस्कृतिक लोकपर्व भगोरिया मनाया जा रहा है। ये पर्व फाल्गुन माह में होली दहन के 7 दिन पूर्व से प्रारम्भ होता है  ये पर्व हमारे शहरों मे वर्ष में एक बार मनाने वाले वेलेंटाइन डे के समान होता है। इस पर्व के दौरान आदिवासी लड़के-लड़कियां अपने प्रेम का इज़हार एक दूसरे से करते हैं। जब प्रेम प्रस्ताव  मंजूर होता है तो लड़का-लड़की वहां से भाग जाते है और उनके गांव वाले शोर करते हुए चिल्लाते है भागरिया- भागरिया। बस ये भागरिया ही भगोरियामें परिवर्तित हो गया। ये परम्परा वर्षों से चल रही है। परम्परा गांव के बड़े-बुजुर्गों के समक्ष उनके हाजरी में आज भी जारी है।

आज शहरों मे देखा जाए तो ऐसे प्रेम प्रस्तावों का दौर टीन एज़ के बच्चों से ही प्रारम्भ हो चुका है। लड़के- लड़कियां दिन भर एक-दूसरे के बाहों में बाहें डाले बाईक पर सवार होकर घूमते हुए पाए जा सकते हैं। पता नहीं ये पढ़ाई कब करते हैं। 

वैसे अभी-अभी पता चला है कि आजकल के बच्चे आंइस्टीन से भी अधिक इंटलिजेंट हो गए हैं। घंटे भर पढ़ कर परीक्षा रुपी वैतरणी पार कर लेते हैं। 

माता पिता अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई को इनके उपर व्यय इस आशा में करते हैं कि ये अपना व अपने माता-पिता का नाम रोशन करेंगे, हो सकता है इनमें से कोई आंइस्टीन निकल जाए। महान वैज्ञानिक न्यूटन ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि किसी भी वस्तु को ऊपर की ओर उछालो तो पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के प्रभाव से वह तेजी से नीचे के ओर आती है। इसी प्रकार आजकल के युवक-युवतियां भी इसी बात को सिद्ध करने की होड़ में है कि जब भी इन्हें स्वतंत्र छोड़ दिया जाए तो कितनी तीव्र गति से इनका नैतिक एवं चारित्रिक पतन होता है।
हमारे देश के किसी मॉल में आप विजिट करेंगे तो आपको भगोरिये का पूरा आनन्द मिलेगा। यहां पर पूरे साल प्रेमी-प्रेमिकाओं को विचरण करते आसानी से आप देख सकते हैं। आपको कभी भगोरिया जाने का मौका लगा हो तो आपने देखा होगा कि वहां इन मेलों में मिठाई की दुकाने, झूले-चकरी, घोड़ा व ऊंट की सवारी करने को मिलती है। और इन सब से उब जाओ और एकांत की आवश्यकता हो तो पर्दे वाले टूरिंग सिनेमाघर में फिल्में देखने का शौक भी पूरा किया जा सकता है। इस प्रकार शहर में तो रोज भगोरिया का त्योहार मनाया जाता है।

कभी-कभी इन भगोरियों में प्रेम के त्रिकोण की स्थिति भी बन जाती है। ऐसे में जो ताकतवर होता है वो पूरी ताकत का इस्तमाल करते हुए प्रेयसी पर विजय पा लेता है। इस ताकत के खेल में हिंसा भी अपना नंगा नाच नाचती है। जी हां इसी प्रकार शहर में भी कई बार बहुकोणीय प्रेम-प्रसंग देखने में आते हैं। परिणाम वही कुछ राम नाम सत्य हो जाते है और कुछ जेल को आबाद करते हैं। 

वर्ष में एक बार भगोरियों में लड़के-लड़की शराब का सेवन खुल कर करते हैं। शराब पीकर ये लोग मदमस्त होकर ढोल और मांदल की थाप पर खूब नृत्य करते हैं। यही दृश्य, आपको अपने शहर के हर चौराहे, हॉटल, मॉल एवं गलियों में आसानी से प्रतिदिन देखे जा सकते हैं बस अंतर इतना कि यहां ढोल एवं मांदल के स्थान पर डीजे होता है। तो भैया निराश न हो हमारी लोक संस्कृति हर शहर में आज भी जिंदा है हालांकि उसका रूप बदल चुका है!